Friday, April 22, 2016

Small Change

          जिन्दगी में बहुत सारे अवसर ऐसे आते है जब हम बुरे हालात का सामना कर रहे होते है और सोचते है कि क्या किया जा सकता है क्योंकि इतनी जल्दी तो सब कुछ बदलना संभव नहीं है और क्या पता मेरा ये छोटा सा बदलाव कुछ क्रांति लेकर आएगा या नहीं लेकिन मैं आपको बता दूँ हर चीज़ या बदलाव की शुरुआत बहुत ही basic ढंग से होती है | कई बार तो सफलता हमसे बस थोड़े ही कदम दूर होती है कि हम हार मान लेते है जबकि अपनी क्षमताओं पर भरोसा रख कर किया जाने वाला कोई भी बदलाव छोटा नहीं होता और वो हमारी जिन्दगी में एक नीव का पत्थर भी साबित हो सकता है | चलिए एक कहानी पढ़ते है इसके द्वारा समझने में आसानी होगी कि छोटा बदलाव किस कदर महत्वपूर्ण है |
          एक लड़का सुबह सुबह दौड़ने को जाया करता था | आते जाते वो एक बूढी महिला को देखता था | वो बूढी महिला तालाब के किनारे छोटे छोटे कछुवों की पीठ को साफ़ किया करती थी | एक दिन उसने इसके पीछे का कारण जानने की सोची | वो लड़का महिला के पास गया और उनका अभिवादन कर बोला ” नमस्ते आंटी ! मैं आपको हमेशा इन कछुवों की पीठ को साफ़ करते हुए देखता हूँ आप ऐसा किस वजह से करते हो ?”  महिला ने उस मासूम से लड़के को देखा और  इस पर लड़के को जवाब दिया ” मैं हर रविवार यंहा आती हूँ और इन छोटे छोटे कछुवों की पीठ साफ़ करते हुए सुख शांति का अनुभव लेती हूँ |”  क्योंकि इनकी पीठ पर जो कवच होता है उस पर कचता जमा हो जाने की वजह से इनकी गर्मी पैदा करने की क्षमता कम हो जाती है इसलिए ये कछुवे तैरने में मुश्किल का सामना करते है | कुछ समय बाद तक अगर ऐसा ही रहे तो ये कवच भी कमजोर हो जाते है इसलिए कवच को साफ़ करती हूँ |
          यह सुनकर लड़का बड़ा हैरान था | उसने फिर एक जाना पहचाना सा सवाल किया और बोला “बेशक आप बहुत अच्छा काम कर रहे है लेकिन फिर भी आंटी एक बात सोचिये कि इन जैसे कितने कछुवे है जो इनसे भी बुरी हालत में है जबकि आप सभी के लिए ये नहीं कर सकते तो उनका क्या क्योंकि आपके अकेले के बदलने से तो कोई बड़ा बदलाव नहीं आयेगा न | महिला ने बड़ा ही संक्षिप्त लेकिन असरदार जवाब दिया कि भले ही मेरे इस कर्म से दुनिया में कोई बड़ा बदलाव नहीं आयेगा लेकिन सोचो इस एक कछुवे की जिन्दगी में तो बदल्वाव आयेगा ही न | तो क्यों हम छोटे बदलाव से ही शुरुआत करें |
अब एक और कहानी देखते है ...

          એક નાનો બાળક હતો. બાળકને કેરીનું ઝાડ (આંબો) બહુ ગમતો. જ્યારે નવરો પડે કે તુરંત આંબા પાસે પહોંચી જાય. આંબા પર ચડે, કેરી ખાય અને રમીને થાકે એટલે આંબાના વૃક્ષની ઘટાદાર છાયામાં સૂઈ જાય. બાળક અને આ વૃક્ષ વચ્ચે એક અનોખો સંબંધ હતો. બાળક જેમ જેમ મોટો થવા લાગ્યો તેમ તેમ એણે આંબા પાસે આવવાનું ઓછું કરી દીધું. અમુક સમય પછી તો સાવ આવતો જ બંધ થઈ ગયો. આંબો એકલો એકલો બાળકને યાદ કરીને રડ્યા કરે. એક દિવસ અચાનક એને પેલા બાળકને પોતાના તરફ આવતો જોયો. આંબો તો ખુશ થઈ ગયો. બાળક જેવો નજીક આવ્યો એટલે આંબાએ કહ્યું, “તું ક્યાં ચાલ્યો ગયો હતો ? હું રોજ તને યાદ કરતો હતો. ચાલ હવે આપણે બંને રમીએ.” બાળક હવે મોટો થઈ ગયો હતો. એણે આંબાને કહ્યું, “હવે મારી રમવાની ઉંમર નથી. મારે ભણવાનું છે પણ મારી પાસે ફી ભરવાના પૈસા નથી.” આંબાએ કહ્યું “તું મારી કેરીઓ લઈ જા. એ બજારમાં વેચીશ એટલે તને ઘણા પૈસા મળશે. એમાંથી તું તારી ફી ભરી આપજે.” બાળકે આંબા પરની બધી જ કેરીઓ ઉતારી લીધી અને ચાલતો થયો.
          ફરીથી એ ત્યાં ડોકાયો જ નહીં. આંબો તો એની રોજ રાહ જોતો, એક દિવસ અચાનક એ આવ્યો અને કહ્યું, “હવે તો મારા લગ્ન થઈ ગયા છે. મને નોકરી મળી છે એનાથી ઘર ચાલે છે પણ મારે મારું પોતાનું ઘર બનાવવું છે એ માટે મારી પાસે પૈસા નથી.” આંબાએ કહ્યું, “ચિંતા ન કર. મારી બધી ડાળીઓ કાપીને લઈ જા. એમાંથી તારું ઘર બનાવ.” યુવાને આંબાની ડાળીઓ કાપી અને ચાલતો થયો. આંબો હવે તો સાવ ઠૂંઠો થઈ ગયો હતો. કોઈ એની સામે પણ ન જુવે. આંબાએ પણ હવે પેલો બાળક પોતાની પાસે આવશે એવી આશા છોડી દીધી હતી. એક દિવસ એક વૃદ્ધ ત્યાં આવ્યો. તેણે આંબાને કહ્યું, “તમે મને નહીં ઓળખો પણ હું એ જ બાળક છું જે વારંવાર તમારી પાસે આવતો અને તમે મદદ કરતા.” આંબાએ દુઃખ સાથે કહ્યું, “પણ બેટા હવે મારી પાસે એવું કંઈ નથી જે હું તને આપી શકું.” વૃદ્ધે આંખમાં આંસુ સાથે કહ્યું, “આજે કંઈ લેવા નથી આવ્યો. આજે તો મારે તમારી સાથે રમવું છે. તમારા ખોળામાં માથું મૂકીને સૂઈ જવું છે.” આટલું કહીને એ રડતાં રડતાં આંબાને ભેટી પડ્યો અને આંબાની સુકાયેલી ડાળોમાં પણ નવા અંકુર ફૂટ્યા.

વૃક્ષ એ આપણાં માતા-પિતા જેવું છે જ્યારે નાના હતા ત્યારે એમની સાથે રમવું ખૂબ ગમતું. જેમ જેમ મોટા થતા ગયા તેમ તેમ એમનાથી દૂર થતા ગયા નજીક ત્યારે જ આવ્યા જ્યારે કોઈ જરૂરિયાત ઊભી થઈ કે કોઈ સમસ્યા આવી. આજે પણ એ ઠૂંઠા વૃક્ષની જેમ રાહ જુવે છે. આપણે જઈને એને ભેટીએ ને એને ઘડપણમાં ફરીથી કૂંપણો ફૂટે.

हिम्मत मत हारिये

     अपने भविष्य के बारे में हमेंशा अच्छी आशाए कीजिये । लेकिन बुरे के लिए तैयार भी रहिये । अगर ईएसआई मुसीबत आएगी, तो हम लड़ेंगे, मुकाबला करेंगे और सहस का परिचय देंगे यह हिम्मत भी रखिये, और उम्मींदें भी अच्छी कीजिये, ख़राब उम्मीदर आप क्यों करेंगे ? क्या ख़राब उम्मीद की guaranty नहीहै, फिर आप अच्छे भविष्य की कल्पना करने में क्यों संकोच करते है ? अच्छे भविष्य की कल्पना करने के लिए आप अपने आप को तैयार कीजिये ।

१. आप से अपेक्षा :

      दूसरे के छिद्र देखने से पहले अपने छिद्र को टटोलो। किसी और की बुराई करने से पहले यह देखलो की हममे तो कोई बुराई नहीं है । यदि हो तो पहले उसे दूर करो । दुसरो की निंदा करने में जितना समय देते हो उतना समय अपने आत्मोकर्ष में लगाओ । तब स्वयं इससे सहमत होंगे की परनिंदा से बढ़ने वाले द्वेष को त्याग कर परमानंद प्राप्ति की और बढ़ रहे हो ।
संसार को जितने की इच्छा करने वाले मनुष्यो ! पहले अपने को जितने की चेष्टा करो । यदि तुम ऐसा कर सके तो एक दिन तुम्हारा विष्व विजेता बनाने का स्वप्ना पूरा होकर रहेगा । संसार का कोई भी जिव आपका विरोधी नहीं रहेंगे ।

२. आध्यात्मिक चिंतन अनिवार्य :

     जो लोग आध्यात्मिक चिंतन से विमूलह होकर केवल लोकोपकारी कार्य में लगे रहते है, वे अपनी ही सफलता अथवा सदगुनो पर मोहित हो जाते है । वे अपने आपको लोक सेवक के रूप में देखने लगते है । ईएसआई अवस्था में वे आशा रखते है की सब लोग उनके कार्य की प्रसंसा करे, उनका लाहा मने । उनका बढ़ा हुआ अभिमान उन्हें कई लोगो का सत्रु बना देता है। इससे उनकी लोक सेवा उन्हें वास्तविक लोक सेवक न बनाकर लोक विनाश का रूप धारण कर लेती है।
अद्यात्मिक चिंतन के बिना मनुख्य में विनीत भाव नै आता और न उनमे दुसरो को सुधरने की क्षमाता रह जाती है।

३.  मानवमात्र को प्रेम करो :

     हम जिस भारतीय संस्कृति, भारतीय विचारकर का प्रचार करना चाहते है, इससे आपके समस्त कष्टो का निवारण हो सकता है। राजनितिक शक्ति द्वारा आपके अधिकारो की रक्षा हो सकती है, पर जिस स्थान से हमारे सुख दुःख की उत्पति होती है उसका उसका नियंत्रण राजनितिक शक्ति नै कर सकती। यह कार्य आध्यात्मिक उन्नति से ही सम्पन हो सकता है।
मनुष्य को मनुष्य बनाने की वास्तविक शक्ति भारतीय संसृति में ही है। यह संस्कृति हमें शिखाति है की मनुष्य मनुष्य प्रेम करने को पेदा हुआ है, लड़ने मारने को नहीं। अगर हमारे सभी कार्यक्रम सही ढंग से चलते रहे तो भारतीय संस्कृति का सर्वोदय अवश्य होगा।

४. जीवन को यज्ञमय बनाओ :

     मन में सबके लिए सद्भावनाएँ रखना, संयमपूर्ण सच्चरात्रता के साथ समय व्यतीत करना, दुसरो की भले बन सके उसके लिए प्रयत्नशील रहना, वाणी को केवल सत्प्रयोजन के लिए ही बोलना, न्यायपूर्ण कामय पर ही गुजर करना, भगवन का स्मरण करते रहना, अनुकूल - प्रतिकूल परिस्थितियों में विचलित न होना - यह नियम है जिनका पालन करने से जीवन यज्ञमय बन जाता है। जब तक हम में अंहकार की भावना रहेगी तब तक त्याग की भावना का उदय होना कठिन है।

५.  हंसते रहो, मुस्कुराते रहो :

उठो ! जागो ! रुको मत !
जब तक की लक्ष्य प्राप्त न हो जाये। कोई दूसरा हमारे प्रति बुराई करे या निंदा करे, उद्वगजनक बात कहे तो उसको सहन करने और उसे उत्तर न देने से वैर आगे नहीं बढ़ता। अपने ही मन में कह लेना चाहिए की इसका सबसे अच्छा उत्तर है मौन । जो अपने कर्तव्य कार्य में जुड़ा रहता है और दुसरो की अवगुणों की खोज में नहीं रहता उसे आतंरिक प्रसन्नता रहती है ।
- जीवन में उतार चढाव आते रहते है
- हँसते रहो, मुस्कुराते रहो
- इस मुख किस काम का जो हँसे नहीं, मुस्कुराये नहीं
जो व्यक्ति अपनी मानसिक शक्ति स्थिर रखना चाहते है, उन्हें दुसरो की आलोचना पर ध्यान नहीं देना चाहिए।

६. अपने आपकी समालोचना करो :

     प्रत्येक क्षण और अवसर का लाभ उठाओ। मढ़ लंबा है, समय वेग से निकल जा रहा है। अपने सम्पूर्ण आत्मबल के साथ कार्य में लग जाओ, लक्ष्य तक जरूर पहुँचोगे। किसी बात के लिए भी अपने को क्षुब्ध न करो। वह तुम्हे रास्ता दिखायेगा और सन्मार्ग